02 Feb 2023
फूलों की वादियों , बर्फीली पहाड़ियों ,बहते हुए झरनों और सागर की स्वछंद लहरों से उठते आग के शोले और बारूद की दुर्गन्ध में लहुलुहान मानवता पूरे संसार को निशब्द और निरीह कर देती है । मानव खुद उस प्रकृति का उपहास क्यूँ उड़ाता है जिससे उसकी उत्पत्ति हुई है ! आश्चर्य होता है कि मानवीय चेतना ,बुद्धि और गुणों से सौहार्द की जगह ऐसी विकृति की जन्म लेती है जो पूरे संसार को विनाश की ओर धकेलती है । विज्ञान से उसी क्षण विरक्ति होने लगती है जब इसके आविष्कार से जन्मी ऊर्जा मानवता के सर्वनाश में तानाशाहों के अहंकार को पोषित करने लगती है और हजारों वर्ष कि तपस्या से बनी सभ्यता और संस्कृति का विनाश करती चली जाती है । सच तो ये है कि इसमें वैज्ञानिक शोधों और अविष्कारों को समाज के उत्थान और विकास के लिए सम्पन्न किया जाता है लेकिन इसके विपरीत जब राजनीतिज्ञ इसका दुरूपयोग अपने प्रभुत्व ,शक्ति प्रदर्शन,उग्र राष्ट्रवाद विस्तारवादी नीति , सत्ता सुख , संसार पर अधिपत्य ,अहंकार और भौतिक संसाधनों को हड़पने के लिए करते हैं तब युद्ध की स्थिति अपरिहार्य हो जाती है । दुर्भाग्य वश कुछ देश जो शांति और प्रगति चाहते हैं वो भी कई राजनैतिक कारणों और अपनी सुरक्षा के दृष्टिकोण से युद्ध के चपेट में आ जाते हैं ।
प्रश्न तो ये उठता है कि युद्ध का वातावरण पैदा करने में किन किन कारणों और कारकों का योगदान होता है । युद्ध की अनिवार्यता आत्मरक्षा तक सीमित होना चाहिए न की स्वार्थ में रचा गया प्रथम और अंतिम विकल्प । प्रायः यही देखा गया है सही नेतृत्व का आभाव , अतार्किक – आनिश्चित कूटनीति , विश्व कल्याण की सोंच का अभाव और राजनैतिक दंभ युद्ध की रणभूमि तैयार करते हैं । विकृत बुद्धि और विचार शून्य राजनेता में युद्ध के परिणाम और उसके वीभत्स दृश्य का आंकलन करने की क्षमता होती ही नहीं इसलिए समाज को बहुत सोंच समझ कर अपने देश का राजनेता चुनना चाहिए जो मानवीय दृष्टिकोण को प्रथम स्थान देता हो , तर्क और न्याय के आधार पर निर्णय लेता हो । राष्ट्रवाद के नाम पर जब व्यक्तिगत महत्त्वकांक्षा , नैराश्य , शौर्य प्रदर्शन और भौतिक लाभ के लिए युद्ध की घोषणा की जाती है तब अनिश्चितकालीन विनाश का रंगमंच स्वतः ही तैयार हो जाता है । जो देश सुसंस्कृत और शिक्षित होता है और जहाँ स्कूलों और पाठशालाओं में संस्कृति से पनपे मानवतावाद की शिक्षा दी जाती है वो समाज अनावश्यक युद्ध का प्रतिरोध अवश्य करता है, इसी मानवीय प्रतिरोध से देश के चरित्र का परिचय भी मिलता है ।
डच मनोविश्लेषक जूस्ट मीर्लू का कथन है – ” प्रायः युद्ध भीड़तन्त्र में जमा हुए अन्तर्निहित आक्रोश का प्रस्फुटन होता है जिसमें लोगों के मन का आंतरिक भय सामूहिक विध्वंश में परिलक्षित होता है । “
ये बात कुछ हद तक सत्य प्रतीत होती है क्योंकि जब कभी दमित आक्रोश एक ज्वालामुखी की तरह फूटता है तो वह चाहे किसी देश , धर्म या प्रजाति या संप्रदाय के विरुद्ध हो, मानवीय मूल्यों को धराशायी करते हुए नैतिक और अनैतिक युद्ध के बीच फर्क करना भूल जाता है ; एक आक्रोशित उन्माद की हिंसात्मक लहर में लाखों निर्दोषों के घर , मन की शांति ,उत्साह ,रचनात्मक ऊर्जा ,मानवीय रिश्तों और प्रकृति के विशुद्ध वातावरण को तबाह कर देता है । सच पूछिए तो ऐसे ऊन्माद को ऐतिहासिक कटु अनुभवों और अत्याचारों की उपज है , एक मनोवैज्ञनिक प्रभाव से गुजरते हैं जिसमें सुरक्षा से ज्यादा बदले की भावना प्रबल होती है । ऐसी स्थिति में शासन -प्रशासन का ये ये नैतिक दायित्व होना चाहिए कि वो बिना किसी पूर्वाग्रह और स्थानीय राजनैतिक दबाव के ऐसा नीतिपूर्ण , मनोवैज्ञनिक तर्क और प्रजातान्त्रिक युक्ति निकालें जिससे समाज , देश और मानवीय मूल्यों का सर्वनाश न हो । यही वो बिंदु है जिसमें नेतृत्व की परख और पहचान होती है । आधुनिक भारत का इतिहास इस बात का गवाह है, लगभग बारह सौ वर्षों से मुगलों , अफगानियों , पख्तूनों , पुर्गालियों ,अरबों, अंग्रेजों और चीनियों के क्रूर आक्रमणों और अत्याचारों के बावजूद भी युद्ध सिर्फ आत्मरक्षा और प्रतिरोध में ही लड़ते रहे । किसी भी देश पर कभी व्यक्तिगत स्वार्थ , क्षेत्र विस्तार , संसाधनों के लिए कभी युद्ध नहीं किया । कई ऐसे ऐतिहासिक उदाहरण है जिसमें अपने ही देश को धर्म के आधार पर दो भागों में विभाजित कर दिया और गृह युद्ध की स्थिति में लाखों निर्दोष लोगों का नरसंहार और विस्थापन हुआ ।
स्वामी विवेकानंद — ” कई सभ्यताएं दुनिया के अलग अलग हिस्सों से आयीं ; प्राचीन और आधुनिक समय में एक जाति से दूसरी जाति तक सुदृढ़ विचार विनिमय हुआ लेकिन हमेशा युद्ध की घोषणा और सेना के आगमन से ही शुरू हुआ । सभी विचार रक्त से सराबोर होता था । समूचे विश्व की राजनैतिक शक्तियां ने लाखों मानवों का बलिदान करवाया, बड़ी संख्या में बच्चे अनाथ हो गए और विधवा स्त्रियों की आँखों में आंसू भर आये । भारत ने शांति के साथ हजारों वर्षों से अपने अस्तित्व को बनाये रखा , हमने कभी किसी राष्ट्र पर आक्रमण नहीं किया और ये पुन्य हमारे ऊपर बना हुआ है ,इसीलिए हम जीवित हैं “
स्वामी विवेकानंद के इस विचार से प्रत्यक्ष प्रमाणित होता है कि ज्यादातर देशों ने भारत पर सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए ही आक्रमण किया था जो परिस्थिति जन्य नहीं था , न ही उसकी कोई आवश्यकता थी । कहीं न कहीं उन सभी विदेशी आक्रमणकारियों का उद्देश अपने राज्य का विस्तार कर संपत्ति का दोहन करना ही था । भूमि अधिग्रहण , सत्ता सुख और अपने शौर्य के प्रदर्शन में वो निरंतर समाज का दमन , दोहन और दुराचार करते रहे । किसी भी देश -काल कि सभ्यता – संस्कृति अगर परिष्कृत नहीं होती तो वह ऐसे ही क्रूर योद्धाओं , शासकों और विचारों को जन्म देती है जो समाज में शांति और सौहार्द से जयादा अपने ऐश्वर्य और शासन विस्तार को ही विजय का अंतिम लक्ष्य मानते है ।
ग्रीक दार्शनिक और विद्वान अरस्तू ( Aristotle 384-322 BC) – ” शांति को संरक्षित करना युद्ध में विजय पाने से ज्यादा कठिन काम है । विजय का फल अपना अर्थ खो देता है अगर शांति स्थापित नहीं हो पाती ”
इसका अर्थ है शांति को संरक्षित करना ही मानव समाज के हित के लिए अंतिम विकल्प है या युद्ध जीतने के पश्चात् भी राज्य में अगर सामाजिक संतुलन और शांति स्थपित नहीं हो सकी तो उस जीत का कोई अर्थ नहीं । वास्तव में युद्ध में विजय के पश्चात् भी पूरा देश किसी न किसी तरह से आहत होता ही है, आर्थिक , सामजिक और मनोवैज्ञनिक धरातल पर विघटन के कुछ तत्व रह ही जाते हैं जो सामान्य जन को विचलित करते हैं और उनकी कार्य क्षमता और सकारात्मक सोंच को प्रभवित करते हैं । युद्ध में विजय पताका लहराने का सारा श्रेय देश का राजनेता और उसके दल के कुछ प्रभावी लोग ले जाते हैं जबकि नेतृत्व के साथ साथ सैन्य मनोबल और देश का पृष्ठभूमि में खड़े होकर देश के सर्वोच्च राजनीतिज्ञ का समर्थन भी उतना ही महत्वपूर्ण होता है । कोई भी महान विचारक वैश्विक सौहार्द और शांति को सर्वोपरि रखता है क्योंकि युद्ध के रण में जीत के लिए सिर्फ योद्धाओं का ही रक्तपात नहीं होता बल्कि आम नागरिक का जीवन भी युद्ध की बलि वेदी पर चढ़ता है और एक संस्कृति का विनाश होता है । सांस्कृतिक ,आर्थिक और भावनात्मक क्षति का प्रभाव समान्य जीवन की गतिविधियों और मन की रचनातक ऊर्जा पर हमेशा नकारात्मक ही पड़ता है और प्रगति के पथ में अवरोध पैदा करता है ।
war impact, oil on canvas , by sanjay kumar srivastav
मानव निर्मित समाज ने स्वयं ही एक ऐसी विषैली मानसिकता को पोषित किया है जो लाशों के ढेर पर अपनी अभिमानी विजय का ध्वज लहराने की कोशिश में लाखों लोगों का रक्तपात करता रहा है, फिर भी उसके दुष्परिणामों से कोई सीख नहीं ली । निर्दोष लोगों के नरसंहार में उन राजनेताओं को जीत का कौन सा संतोष मिलता है, ये किसी भी सभ्य और संवेदनशील व्यक्ति के बुद्धि से परे है । सभ्यता की ऊंचाई चढ़ते चढ़ते विजय पथ पर पागल घोड़े की तरह ऐसा सरपट भागने लगा कि मानवता कि लाश को रौंदने में जरा सा संकोच नहीं किया । विकास की इस यात्रा में न जाने कितनी सभ्यताओं ने जन्म लिया और नष्ट हो गई और उसकी सांस्कृतिक धरोहर लुप्तप्राय हो गई । प्रगतिशील समाज ने औद्योगिक, विज्ञान , नगरीकरण ,औषधि विज्ञान , परमाणु ऊर्जा शोध , सभ्यता के विकास , संस्कृति -कला और न जाने कितने क्षेत्रों में अविष्कार कर मानव जीवन को सुख और साधन से संपन्न किया है लेकिन उन संसाधनों और ऊर्जा के दुरूपयोग पर कठोर प्रतिबन्ध लगाना भूल गया या वह आज भी इतना सभ्य नहीं हो सका कि स्वार्थ सिद्धि , संसाधनों पर कब्ज़ा करने की होड़ और विस्तारवादी प्रवृति के कारण युद्ध किसी भी देश पर युद्ध न थोपे । प्रतिस्पर्धा, शक्ति का दंभ और विस्तारवादी नीति ही प्रायः युद्ध का कारण बनती हैं । हाँ , कभी कभी युद्ध उस परिथिति में अपरिहार्य हो जाता जब किसी देश को आत्मरक्षा के लिए प्रतिरोध करना पड़े ।
अजीब विडम्बना है कि अपने सर्वनाश मानव स्वयं नयी नयी युक्तियाँ , युद्ध के नए नए तरीके और हथियार अपने ही हांथों पैदा कर रहा है और उन पर अन्य मौलिक आवश्कताओं की अपेक्षा कहीं अधिक धन व्यय कर रहा है । युद्ध में कुछ ऐसे तरीके जिसमें जैविक युद्ध , रासायनिक युद्ध , पारंपरिक युद्ध ,परमाणु युद्ध ,साइबर युद्ध , शीत युद्ध आदि वो युद्ध विधियाँ ईजाद की गई हैं जिससे विनाश की लीला को अपने दंभ को पोषित करने के लिए और प्रभावी ढंग से इस्तेमाल किया जा सके । किस जीत और साम्राज्य सुख की कल्पना में ऐसा जघन्य अपराध राजनैतिक नकारात्मक विचार कर जाते हैं , समझ में नहीं आता । प्रथम , द्वितीय और अब तृतीय विश्व युद्ध की ओर तेजी से अग्रसर होती दुनिया किस भयवाह सर्वनाश की ओर ले जाएगी कोई नहीं जानता !
जेनेवा अधिवेशन ( १८६४ -१९७७ )में अन्तराष्ट्रीय समझौते के बावजूद अनेक बार कई देशों ने युद्ध के दौरान इसके मसौदे ( प्रोटोकाल) की अवहेलना की और आत्मरक्षा , शांति स्थापित या प्रजातंत्र की रक्षा की ओट में करने के नाम पर अपना राजनैतिक स्वार्थ सिद्ध करते रहे । मूलतः ये समझौता अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुछ मानवीय मूल्यों की रक्षा करने हेतु किया गया था जिसमें आम जनता , युद्ध में न शामिल होने वाले लोग , युद्ध के दौरान बंदी बनाये गए सैनिकों के साथ किसी तरह की क्रूरता न करने के कुछ नियम बनाये गए थे । यदि किसी स्थिति में युद्ध की सम्भावना बन भी जाती है तो वो युद्ध क्षेत्र तक ही सीमित रहे और उसमें निर्दोष लोगों पर किसी तरह अत्याचार न हो , यहाँ तक कि घायल बंदी सैनिकों के लिए उचित उपचार और खाने कि व्यवस्था का भी उल्लेख उसमे किया गया था । उसके बाद दुनिया में जितने भी युद्ध हुए चाहे वो अफगानिस्तान , ईरान , सीरिया , जापान-चाइना और हाल ही में रूस – युक्रेन युद्ध लगभग सभी में किसी न किसी रूप में इस समझौते की अवमानना हुई है । वास्तव में होना तो ये चाहिए था कि इसके मसौदे में कुछ ऐसे नियम या कानून बनाये जाते जिससे सभी देश युद्ध की परिस्थिति उत्पन्न करने से बचें और जितना हो सके स्वार्थरहित होकर लोकतान्त्रिक और कूटनीतिक तरीके से आपसी विवाद को सुलझायें , संभवतः इसी में मानव सभ्यता और मूल्यों का हित सुरक्षित है ।
पूरे विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है जिसने कभी स्वार्थवश किसी भी विदेशी भूमि पर विस्तारवादी नीति नहीं अपनाई बल्कि विदेशी आक्रमणकारीयों से स्वयं रक्तरंजित होता रहा, अपने साम्राज्य,अपनी सम्पति और नागरिकों की क्षति के बावजूद अनावश्यक रूप से किसी भी देश पर आक्रमण नहीं किया, सभवतः ये इस देश की परंपरा और संस्कृति का प्रभाव है । कुछ महान विभूतियों ने अपने ढंग से से इसे व्यक्त किया है ।
अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन लिखते हैं – ” भारत मानव जाती का पालना है , मानव जाति की वाणी का जन्म स्थान है , इतिहास की जन्मदात्री और महान विचारकों की दादी है और इससे भी ज्यादा वह परम्पराओं की परदादी है । भारत मानव इतिहास के अनुसरणीय तत्वों का भण्डार है ।”
फ्रांसीसी लेखक और विचारक रोमा रोलां – ”पूरी दुनिया में यदि पृथ्वी के मुंख पर ऐसी कोई जगह है जहाँ मानव जाति के सभी सपनों को संजोया जा सकता है , जहाँ मानव जगत अपने अस्तित्व का सपना देख सकता है तो वह भारत है ।
नोट – कृपया अपने व्यक्तिगत विचार व्यक्त करें ।