16 Apr 2023
संसार में कोई देश,काल और समाज ऐसा नहीं है जिसमें राजनैतिक,आर्थिक और धार्मिक द्वंध ने परिवर्तन की दिशा का निर्धारण न किया हो । किसी भी काल की कला के बदलते रूप और प्रवृति को उस समय के सामाजिक -राजनैतिक उतार चढाव के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है । समाज और कला के बीच अंतर्क्रिया ने ही अलग अलग कालों में कलात्मक अभियक्ति के मूल्यों ,माध्यमों और शिक्षा में प्रासंगिक परिवर्तन दर्शाया है,चाहे वो उत्थान का समय रहा या फिर पतन का । जब जब समाज में धर्म के आधार पर राजनैतिक संघर्ष हुआ या राजनीती में धार्मिक सोच का वर्चस्व रहा, कला के क्षेत्र में भी एक द्वान्धात्मक प्रवित्ति की प्रतिछाया परिलक्षित होती रही है । चित्रकला, साहित्य ,संगीत ,मूर्तिकला ,नाट्य कला ,सिनेमा सभी में राजनैतिक द्वंध का गहरा प्रभाव देखा जा सकता है ।
पूरे विश्व की तरह भारत भी राजनैतिक उन्माद की प्रचंड लहरों से आहत होता रहा है और आज भी यदा कदा ये दृश्य किसी न किसी कारण से प्रायः देखने को मिल जाता है । मानव स्वाभाव में शक्ति की प्राप्ति , प्रदर्शन और परिक्षण की तीव्र इच्छा और ललक पूरे समाज की सोंच, अभिव्यक्ति और व्यवस्था को बहुत गहराई से प्रभावित करती है । अगर सत्ता प्राप्ति की तीव्र इच्छा सकारात्मक और कल्याणकारी है तो राजनीती की दिशा उन्मुख होती है और मानव अस्तित्व के लिए सुदृढ़ सामाजिक परिवेश का निर्माण करती है ।
शासक और समाज के मध्य एक प्रजातंत्र का सूत्र यदि कमजोर है तो समाजिक परिवेश कभी सकारात्मक नहीं हो सकता और ऐसी स्थिति में किसी भी क्षेत्र में रचनात्मक बोध का बीज सहजता से अंकुरित नहीं होता । प्रायः रजनैतिक शक्तियों को ये बोध नहीं होता कि उनके अमानवीय व्यवहार, अनावश्यक शक्ति प्रदर्शन और शक्ति प्राप्त करने की अमानवीय प्रक्रिया में हुए समाज के संतुलन , समायोजन और संरचना पर कितना अपघाती प्रभाव पड़ता है । तानाशाही के ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिसने सहित्य और कला पर भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अपनी घृणित शक्ति प्रदर्शन का दबाव डालने का प्रयत्न किया और इसके प्रतिरोध में लोक क्रांति के साथ साथ कला और साहित्य में भी में भी क्रांति का सूत्रपात हुआ ।
सामाजिक परिवर्तनों भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के काल में बहुत ऐसे उदाहरण हैं जिनकी कला में ब्रिटिश शासकों की तानाशाही ,उनके अत्याचारों और दमन से उपजे त्राहिमाम से प्रेरित भाव व्यंजना ने कला की सभी विधाओं में व्यक्त होना शरू कर दिया था ।बहुत सारी कविताओं , नाट्यों ,लोकगीतों यहाँ तक की नौटंकियों में भी कुछ ऐसी रचनाएँ की गई जिनसे देश के आवाम को आंदोलनों में प्रबलता से भाग लेने की प्रेरणा मिली, इसका सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय का आनंदमठ उपन्यास में लिखा राष्ट्रीय गीत ‘ वन्दे मातरम् ,वन्दे मातरम् ! सुजलाम,सुफलाम,मलयज शीतलाम..और रबीन्द्रनाथ टैगोर का लिखा राष्ट्रगान ‘ जन गण मन अधिनायक जय हे ‘…जैसी रचनाएँ है जिसमें उस समय के इतिहास की झलक देखी जा सकती है । चित्तोप्रोसाद, शंखो चौधरी , जैनुल आबेदीन ,रामकिंकर बैज कुछ ऐसे कलाकार थे जिनकी रचनाओं में तत्कालीन सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियों के प्रभावशाली द्रश्यों को महसूस किया जा सकता है ।