कला, साहित्य और सामाजिक आन्दोलन

02 Feb 2023
समाज व्यक्तिओं का वो समूह है जो अपरिहार्य भावनात्मक अंतर्क्रियाओं से संगठित भी होता है और विघटित भी । हर विशिष्ट जगह की संस्कृति और सभ्यता के विकास में अंतर्क्रियाओं का सामंजस्य बहुत महत्त्व रखता है । प्लेटो की ‘रिपब्लिक ‘में न्याय की व्याख्या करते हुए लिखा है कि राज्य का प्रमुख कर्तव्य न्याय की उपलब्धि मैं निहित होता है । न्याय को सर्वोच्च रखते हुए उन्होंने शासन ,राज्य द्वारा संचलित शिक्षा तथा समाज में साम्य स्थपित करने वाले विचारों का वर्णन किया है । उनका मानना है कि समाज का हर व्यक्ति अपनी बुद्धि , प्रकृति और शिक्षा के अनुरूप ही कार्य करता है । न्याय उन विचारों और अंतर्क्र्याओं का बंधन है जो समाज के सभी व्यक्ति को अधिकार और अनुकूल परिवेश देता है इसीलिये न्याय का स्थान आत्मा में में होता है । ऐसे विचार भी कलाकारों का मार्गदर्शन करते हैं , क्योंकि ये उस संस्कृति का अटूट अंग बन जाते हैं । कला भी दर्शन की तरह समाजिक न्याय और आत्मिक बोध से सीधा सम्बन्ध रखती है । इसीलिए जब किसी समाज में प्रतिकूल वातावरण पैदा होता है तो कलाकार न्याय के नये समाज के आयामों को अपनी कला से व्यक्त करने लगता है । ये अनुभूति सामंजस्य की प्रक्रिया से होकर गुजरती है और समाज में व्याप्त प्रतिकूल परिस्थितियों को अपने भाव, रूप , शब्द और स्वरों के माध्यम से व्यक्त करती है। यही कारण है जब कोई बड़ा सामाजिक परिवर्तन एक नया रूप धारण करता है तो कलाभिव्यक्ति में भी नये नए प्रयोग आरंभ हो जाते हैं । राज्य की शक्ति का राजनैतिक दबाव जब जब समाज पर आरोपति होता है; साहित्य , संगीत और कला में वह प्रतिरोध के स्वर में उभर कर आता है । ऐसे बहुत से उदाहरण किसी भी देश और काल की परिस्थितियों में देखा जा सकता है । वैसे भी अभिवक्ति से ही मानव इतिहास का सरंक्षण होता रहा है जो उस काल की संस्कृति और मानव समाज को प्रतिबिंबित करती है । सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था में विघटन प्रायः कला और साहित्य में प्रयोगशीलता के आश्चर्यजनक आयाम खोल देता है । कभी वो प्रतिक्रियात्मक प्रयोग सफल हो जाते हैं तो कभी विफल । इस प्रक्रिया में कल्पना के अद्भुत प्रतिमानों , नये नये माध्यमों और वस्तुओं के प्रयोग , स्वतंत्र दृष्टिकोणों और प्रतिक्रियाओं की गतिशीलता ने अभिव्यक्ति की दिशा को बहुत बार बदला है । उदहारण के तौर पर अगर जूरिख में विकसित दादावाद की व्याख्या करें तो पता चलता है कि कोई भी समाजिक परिवर्तन अभिव्यक्ति की प्रवित्ति को कैसे बदल देता है । प्रथम विश्व युद्ध ( १९१४ -१९१८ ) की विभीषिका से ग्रसित समाज और उसकी पीड़ा ने कला दृष्टी को कितना प्रभावित किया , वास्तव में ये युद्ध से घृणा के प्रति त्वरित प्रतिक्रिया थी जिसमें कला ,साहित्य कोलाज ,ध्वनि काव्य , ध्वनि मीडिया आदि माध्यमों से अपने भीतर चल रहे संघर्ष को अनोखे तरह से व्यक्त किया । इनका उद्देश्य उस कला और सौन्दर्य की पूर्व स्थापित मान्यता के विरुद्ध विरोध व्यक्त करना था जो समाज में सदियों से सराही जा रही थी । इनके अभिव्यक्ति में अतार्किक तत्व , उपहास ,मसखरापन और यहाँ तक कि कुछ ऐसी वस्तुओं का उपयोग शामिल था जो कभी परम्परगत कला में कल्पनीय नहीं था ; कला आलोचक उनकी कृतियों को बुद्धिहीनता ( प्रचलित मान्यताओं के हिसाब से ) का परिचायक मानते थे । फ़्रांसिसी चित्रकार और मूर्तिकार मार्सेल डयूकैंप (१८८७ – १९६८ ) ने एक पोस्टकार्ड में बनी मोनालिसा के चेहरे पर मूछें बना कर रेनेसां कालीन सौन्दर्य की मान्यता से अपना प्रतिरोध व्यक्त किया था । उनका ‘फाउंटेन ‘ नामक एक बहुत प्रसिद्ध इंस्टीलेशन जिसमें एक यूरिन पॉट दर्शाया गया है । वास्तव में ये एक ऐसा प्रतिरोध था जो युगों से प्रतिष्ठित कला के विरोध में एक कलाकार की ही आवाज़ थी और उनकी ये तीखी प्रतिक्रिया उन कुलीन समाज के ऊपर भी थी जिनको उन्होंने युद्ध का कारण माना था । उनका मानना था कि वो कला अप्रासंगिक और अर्थहीन है जो पहले से चले आ रहे स्थापित तत्वों और विषयों में विश्वास रखती है और समाज के लिए उसका न कोई औचित्य न ही कोई मूल्य । हालाँकि इसमें भी दो विचारधाराएँ थी, एक जो अपने नैराश्य और प्रतिरोध को व्यक्त कने के लिए कला निर्मित कर रहे थे , दूसरे उपहास योग्य ,अतार्किक और भद्दी कृतियों का निर्माण कर रहे थे । लेकिन दोनों ही स्थितियों में उनका उद्देश्य एक ही था । इसी तरह प्रभाववाद , उत्तर प्रभाववाद , क्युबिस्म , अतियथार्थवाद , फाववाद , आदि कई ऐसे आन्दोलन हुए जिसने अभिव्यक्ति कि सभी विधाओं को अपने ढंग से प्रभावित किया जिसमें समाज अपने नए प्र्तिबिम्बों और प्रतिमानों के साथ दर्शाया गया । उनका विस्तृत व्याख्यान अगले लेख में करेंगे ।

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