कला और समाज का अंतर्संबंध

16 Apr 2023
भारतीय कला का दार्शनिक दृष्टिकोण मूलतः सत्यम शिवम् सुन्दरम द्वारा ही परिभाषित किया गया है ।भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में किसी भी विधा की कला को संस्कृति का विशेष अंग माना गया है क्योंकि इसके द्वारा भावभिव्यक्ति की सौन्दर्यानुभूति एक ऐसी चेतना का विकास करती है जो मानव समाज के मानस को उच्च स्तर पर ले जाती है और जिससे समाज का संतुलन बना रहने में सहयोग मिलता है ।समाज के साथ कला के अंतर्संबंध का विकास किसी भी देश और काल की सांस्कृतिक सोंच और गतिविधियों , मूल्य,उत्थान और पतन की कहानी कह देता है ।भाव व्यंजना के आधार पर नौ रसों के सिंद्धांत को भारत में कलात्मक अभिव्यक्ति का अभिन्न तत्व माना गया है । यूँ तो कला को परिभाषित करना स्वयं ब्रहमाण्ड को परिभाषित करने के समतुल्य है क्यूंकि जितने लोगो ने इसे अपने कथनों से एक स्वरुप देने की कोशिश की है उसमें कोई न कोई तत्व अपूर्ण रह ही जाता है। इसका क्षेत्र इतना वृहद् है कि उसे कुछ शब्दों में समेटना असंभव सा है ।ये प्रकृति की ही तरह अंतहीन और स्वछंद है और मानव बुद्धि और चेतना को और विकसित कर उसके स्वंतंत्र विचार को विस्तार देती है । कला ही अपनी सौदार्यानुभूति से समाज और मानव दोनों को मानवीय संवेदना के सूत्र में जोड़कर जीवन में संतुलन का संचार करती है । प्रायः लोग इसे मनोरंजन का साधन समझकर इसकी अवहेलना करते है । संवेदनशील कलाकार समाज में हुई किसी भी घटना या परिवर्तन से बहुत प्रभावित होता है और उसकी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप उसके अभिव्यक्ति में कहीं न कहीं उसका अपना अंतर्मन झलक ही जाता है या उसकी कलाकृति में प्रदर्शित हो जाता है। जीवन का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं जिसमें कलात्मक सौन्दर्य की स्वीकृति न हो । रंग-रूप, शब्द ,स्वर ,भाव -भंगिमा ,चैतन्य और बुद्धि सभी प्रकृति प्रदत्त हैं जो कला अभिव्यक्ति को भाव प्रवणता प्रदान करते हैं ; कुछ हद तक ये साधन भी है और भाव के अन्तरंग तत्व भी । उदारण के लिए रंग भी एक भौतिक तत्व है लेकिन भावना के अनुरूप ये प्रतीकात्मक बोध भी बन जाता है और अभिव्यक्ति को एक नया अर्थ प्रदान करता है । हिंदी के महान कवि मैथलीशरण गुप्त के अनुसार ,” अभिव्यक्ति की कुशल शक्ति और मन के आत्मबोध की सौन्दर्यानुभूति ही कला है ” अर्थात बाह्य साधन मात्र से कला जन्म नहीं लेती बल्कि उसके किये आत्मचिंतन और अनुभूतिक तत्व भी अनिवार्य है ।विशेषकर भारत में कला को हमेशा एक आत्मिक बोध और जीवन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में ही देखा गया है । प्राचीन भारतीय कला में धर्म और पौराणिक कथाओं से प्रेरित चित्र बहुतायत में मिलते हैं इसका विशेष कारण यही था कि यहाँ जीवन आध्यामिक विचारों से ओत प्रोत था ।विशिष्ट दैवीय चरित्रों और पूजनीय व्यक्तित्वों को मूलभूत सत्य मानकर अराध्य के रूप में चित्रित किया गया । यही कारण था कि ज्यादातर चित्र या तो अराध्य व्यक्तियों के बने या फिर किसी उच्च पद पर आसीन शासक के, संभवतः इसे लिए सामान्य या आम आदमी लगभग चित्रों से नदारद ही रहा या उसकी भूमिका और महत्त्व को नाकारा गया । लेकिन बीसवी सदी के साहित्य और कला दोनों में धीरे धीरे आम जीवन ने भी अपनी जगह बना ली थी । बहुत सारे लेखक,कवि और चित्रकार अपनी रचनाओं में सामान्य जीवन की पीड़ा ,सुख और उत्सव को भी अभिव्यक्त करने लगे और इस तरह से समाज और कला के संबंधों का नया आयाम उभरा I

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