कला शिक्षा और सामाजिक चेतना

16 Apr 2023
ऐ पी जे अब्दुल कलाम के मतानुसार ‘ एक अच्छी पुस्तक हज़ार मित्रों के बराबर होती है और एक अच्छा मित्र एक लाइबरेरी के बराबर होता है ।’ एक महान वैज्ञानिक का ये वक्तव्य बहुत कुछ कहता है । शिक्षा का अर्थ व्यक्तित्व , बौद्धिक विकास ,प्रकृति चैतन्य , व्यवहारिक सौदर्य बोध के संदर्भ में अगर समझा जाये जो समाज को संतुलित और संगठित रखता है तो उसमें कला शिक्षा का महत्त्व भी अपना एक विशेष स्थान है । कला के प्रति सजग और विकसित देशों ने अपनी शास्त्रीय कला से बहुत कुछ सीखा लेकिन उस शिक्षण का अँधा अनुकरण नहीं किया बल्कि समय के साथ अपने परिवेश से तादात्म्य स्थापित कर कला के नए आयामों को धारण किया .। इसका विशेष कारण था वहाँ की निरंतर विकसित होती हुई शिक्षण पद्यति । ब्रह्माण्ड के स्वरुप में व्याप्त तत्व ,उनकी गतिविधियों , गतिशीलता और प्रकृति का प्रत्यक्षीकरण और अवलोकन करने का रोमांच और जिज्ञसा मानव का मूल स्वाभाव रहा है । अन्वेषण और विश्लेषण की इस प्रक्रिया में ज्ञानेन्द्रियाँ और आत्मिक बोध के समन्वय से धीरे धीरे उसमें रचनात्मक प्रक्रिया के माध्यम से अनुभूति को व्यक्त करना , उसके लिए प्रतीकों का उपयोग करना , नए साधनों की खोज करना , सौंदर्य के साथ भावना का प्रदर्शन करना , समाजिक प्रतरोध करना और अपने दैनिक क्रिया कलापों को व्यक्त करना आ गया । इस संपूर्ण प्रक्रिया में कला नए नए रूप धरण करती रही और प्रतीकों और ध्वनि के समागम ने शब्दों की अवधारणा को जन्म दिया, ऐसा मेरा अनुमान है । प्रकृति वो सत्य है जिसमें मानव जीवन का सम्पूर्ण दर्शन निहित होता है जो मानव की प्रत्येक क्रिया और प्रतिक्रिया में परिलक्षित होता है । इसीलिए जन्म से ही बच्चे में प्रयाक्षिकरण , परिस्थिति जन्य प्रतिक्रिया , संवेदनात्मक ,शारीरिक -मानसिक विशेषताओं के विकास में सौन्दर्यनुभूति और अभिव्यक्ति के स्वाभविक गुणों का विशेष महत्त्व होता है । अवनींद्र नाथ टैगोर के शिष्य नंदलाल बोस का कथन है ‘ कला शिक्षण का लक्ष्य कलाकार को जन्म देना या किसी बच्चे को कलाकार बनाना नहीं है बल्कि उसमें आत्मबोध , कला चेतना जगाना और उसकी कलात्मक क्रियाओं का विकास करना है ।’ उनका ये कथन इसलिए सत्य प्रतीत होता है क्यूंकि कला निर्मिती एक जन्मजात गुण है और ये बात पूर्णतया सच भी है कि किसी को कितनी भी उच्च कोटि के शिक्षण संसथान में कला की शिक्षा दी जाये वो स्वाभविक कलाकृति निर्मित नहीं कर सकता , यदि करेगा भी तो वो अस्वाभाविक और सिर्फ रूपाकारों का आत्मा विहीन संयोजन मात्र होगा , उसका अनुभूतिक सत्य और कल्पना उसमें लेशमात्र भी प्रदर्शित नहीं होगी । भारतवर्ष की कला परम्परा में प्रकृति के चैतन्य , आत्मबोध और अलौकिक सत्ता को विशेष महत्त्व दिया गया है जो विशेषकर लोककला शैलियों में अमूर्त ईश्वरीय शक्ति को साध्य मानकर जीवन के हर पक्षों और प्रतीकों का चित्रण सरल रूपाकारों में किया जाता है जिसमें उनकी स्थानीय सामाजिक संरचना , संस्कृति और आस्थाओं का परिचय मिलता है । इस तरह कि अभिव्यक्ति की शिक्षा किसी विशेष कला विद्यालय से नहीं लेने कि आवश्यकता पड़ती बल्कि ये उनको परिवार के संस्कारों और परम्पराओं से प्राप्त होती है । कहीं न कहीं व्यक्ति के स्वाभाविक सौन्दर्य बोध के साथ साथ इसमें आस्था और संकृति का मिश्रण होता है इसका अर्थ यही है कि मानव व्यक्त करने के विभिन्न रूपों का आविष्कार अपनी सृजनात्मक क्षमता के आधार करने का निरंतर प्रयत्न करता है । सिर्फ अभ्यास और तकनीकी कभी कला कृति में भावनात्मक ऊर्जा का संचरण नहीं करते । कला के विकसित अनेक रूपों में आधुनिक कला ने जिस गति उन्नीसवीं और बीसवी सदी में विकास किया है वो विज्ञान , दर्शन और बदलती सामाजिक मान्यताओं के बदलता चला गया । कला शिक्षण की अनिवार्यता — भारत में १९२०-२१ रविंद्रनाथ टैगोर के सहयोग से शान्तिनिकेतन की स्थापना हुई जिसमें कला संकाय को धीरे धीरे विकसित किया गया जहाँ प्रकृति के सानिध्य में कलाकार स्वच्छंद रूप से सृजन कर सकें । इसमें भारत की प्राचीन आश्रम पद्यति की शिक्षण परंपरा जिसमें गुरु -शिष्य के मध्य स्वतंत्र वैचारिक आदान प्रदान होता था , को प्रोत्साहित किया गया । प्रकृति के सहज सानिध्य में आत्म चिंतन और मनन की रचनात्मक प्रक्रिया को विशेष स्थान दिया गया जहाँ शांत वातावरण में नृत्य , संगीत , नाट्य ,चित्रकला आदि विषयों का अद्यापन किया जा सके । इस विश्वविध्लय को खोलने का मुख्य उद्देश बहुत मानवीय और विश्व बन्धुत्त्व की प्रेरणा से पूर्ण था जिसमें एशिया और पश्चिम देशों की संस्न्कृति को एक दूसरे को जानने और समीप आने का अवसर मिले जिससे विद्यार्थियों को दृष्टि को अंतर्राष्ट्रीय फलक पर पहुंचता जा सके । दूसरा मुख्य उद्देश्य कि उनको उनकी रचनाधर्मिता के साथ साथ ग्राम्य जीवन को समझने का भी अवसर मिले । विचार विनिमय की प्रक्रिया में कला के उन मानवीय गुणों को व्यवहारिक रूप देना भी था जिसमें सामान्य जन जीवन भी उसमें समाहित हो सके और ज्ञान का प्रचार समाज के सभी वर्गों में हो सके । इसकी स्थापना का मूल मंत्र रचनात्मक और सौहार्द पूर्ण वातावरण का निर्माण करना था जिसमें कला के मानवीय गुणों को संजो कर एक ऐसे सांस्कृतिक केंद्र की स्थापना की जाये जिसमें सभी सभ्यताओं और धर्मों के साहित्य , विज्ञान और इतिहास को पढ़ाया जा सके । आज भी गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर के विचार से विशेषकर कला विद्यालयों की स्थापना की जाये तो कलाकार अनेक ऐसी औपचारिकताओं और कुंठाओं से बच सकता है जो उसकी रचनाशीलता और कला कर्म में सामान्य जीवन और विश्व बन्धुत्त्व का भाव नहीं जगा पाती । ऐसी कला पद्यति है जिसमें कलाकार कृत्रिम प्रचार के प्रति अनियंत्रित मोह , कल्पना का संकुचन , स्व निर्मित कला की निरंतर पुनरावृत्ति से बाज़ार में बना रहने की प्रवित्ति , प्रसिद्धि और प्रचार के कुचक्र में फँस कर अपने मूल उद्देश्य को भूल जाना , त्वरित सफलता के भ्रम में उलझ कर स्थापित कलाकारों की नक़ल करना , किसी अन्य से कलाकृति बनवा कर अपने नाम से प्रदर्शित करना , आधुनिकता के नाम पर अपनी कला कृतियों को तमाम संसाधनों से इतना कृत्रिम बना देना जिसमें भावासंवेग की ऊर्जा ही न हो, इत्यादि से बच सकता है । वैसे तो स्वतंत्रता के पश्चात् सरकारों ने कला शिक्षण के कई प्रारूपों को समय समय पर भारतीय संकृति और सभ्यता के प्रसार और ज्ञान को कला संकायों और शिक्षा प्रणाली से जोड़ने का प्रयास किया है फिर भी अभी इनसे संबधित सांस्क्रतिक और मानव संसाधन विकास मत्रालयों को बहुत कुछ करने की आवश्यकता है और उसे व्यवहारिक रूप से लागू करने कि जिम्मेदारी भी । कला के अध्यन और अध्यापन से निसर्ग की ओर शिशु मन का नये नये उद्दीपकों को खोजने का प्रयास करता है और आकर्षित होता है । ये सृजन प्रक्रिया का वो बिंदु है जिसमें रचनात्मक ऊर्जा का सहज विकास होता है और मौलिक चिंतन से व्यक्तित्व में गतिशीलता आती है । इससे वह अपने परिवेश में उपस्थित वतुओं और परिस्थितियों का अवलोकन अच्छे से करने योग्य हो जाता है । कला शिक्षण की पद्यति अगर प्रभावशाली हो तो बच्चे के व्यक्तित्व में अभिव्यकत करने की क्षमता ,प्रसार और सामजिक अंतर्क्रिया से समाज से जुड़ने का भाव उत्पन्न होता है । वह अलग अलग परिस्थितियों में स्वयं को व्यक्त करने का साधन तलशता है और अपने अचेतन में संचयित सभी अनुभवों को नये रूप में व्यक्त करने का प्रयास करता है और अनेक ऐसे अनुभव जो मन में किसी कुंठा या ग्रंथि का निर्माण कर व्यक्तित्व को विघटित करते है , से सुरक्षित रहता है । लगातार प्रयासरत रहने से भवनात्मक संतुलन के साथ मन में घटित अमूर्त अनुभव अपना मूर्त रूप धारण करते हैं और सीखने की प्रक्रिया में ज्ञानेन्द्रियों को और सजग करते हैं । प्रायः ये देखने को मिलता है कि ज्यादातर कला विद्यार्थी अपनी औपचारिक शिक्षा पूर्ण करने के बाद अपने भविष्य को लेकर एक अनचाही असुरक्षा की भावना का शिकार हो जाते हैं जिससे उनके सृजन के क्रियान्वयन में अवरोध उत्पन्न होता है । कला एक अनुभूतिक सत्य है लेकिन जीवन के संचालन के बिना ये संभव नहीं इसलिए जीवकोपार्जन का कोई न कोई तो साधन चाहिए । यही वो बिंदु जहाँ विभिन्न परिस्थितियां और स्वयं कलाकार निर्धरित करता है कि उसे किस दिशा में जाना है । दोनों ही स्थितियों में जीवन निरंतर अबाध गति से चलता है बस एक रचना कर्म में नयी नयी अनुभूतियों और प्रयोगों के साथ और दूसरा अपनी अव्यक्त सत्ता और शिथिल सृजन के साथ । इसका ये अर्थ नहीं कि इनमें शिक्षक बनने वाला व्यक्तित्व कला शिक्षण में प्रयोग और अपनी रचना धर्मिता नहीं निभाता , बहुत से ऐसे शिक्षक भी हो सकते है जो निरंतर अपने सृजन के प्रति भी बहुत सचेत रहते हैं । यहाँ मेरा कहने का अभिप्राय है कि कला की प्रगति के लिए राज्यकीय संस्थाओं को कोई ऐसी योजना का विकास कारण चाहिए जहाँ सक्रीय कलाकारों को ईमानदारी के साथ आर्थिक और नैतिक आधार के साथ साथ उनकी रचनाओं को प्रकाशित और प्रसारित भी किया जाये ।कला के क्षेत्र में आज भी कुछ गिने चुने कलाकारों को ही राजनैतिक संरक्षण की वजह से उच्च कोटि का कलाकार मन जाता है । यही चयन यदि कलाकृति के विशेष गुणों पर आधारित हो तो भारत वर्ष की कला भी और ऊंचा आसमान छू सकती है ।

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