कला चेतना में समाजिक तत्व

16 Apr 2023
कला चेतना में समाजिक तत्व (ART CONSCIOUSNESS IN SOCIAL ELEMENTS) Whisperers, oil on canvas by Sanjay kumar srivastav मानव उत्पत्ति के साथ ही उसकी अभिव्यक्ति और उसके माध्यमों का विकास उसके संघर्षों के समानांतर चलता रहा है और इसी कारण उसने अपनी भावनाओं को सीमित साधनों में भी व्यक्त करना आरम्भ कर दिया था ।इतालियन दार्शनिक बेनेदेत्तो क्रोचे ने कहा था ” कला विज्ञान और अध्यात्म से भी अधिक आवश्यक है क्यूंकि ये मानव को परिष्कृत करती है ।हम जो भी जानते हैं वो सिर्फ तर्क और कल्पना तक ही सीमित है लेकिन एक कलाकार का काम है कि वह एक ऐसी बिम्ब या पूर्ण इमेज का आविष्कार करे जो दर्शनीय हो,क्यूंकि मौलिक रूप से सौन्दर्य का उद्देश्य अंतर्मन और आदर्श बौद्धिक प्रतिबिम्ब का निर्माण करना है ।” स्वीडन के कर्ट काल्मैन लिखते हैं कि वैदिक विचार से मूलतः सभी में रचनात्मक ऊर्जा और ज्ञान का श्रोत जन्म से निहित होता है ।वैदिक विचार किसी कला विधा को प्रत्यक्ष रूप से नहीं दर्शाता बल्कि ये बताता है कि जो ज्ञान हमें कुछ रचने के लिए आवश्यक है वो पहले से हमारे भीतर मौजूद है और ये मानव स्वाभाव का मौलिक अंग है ।” किसी भी कलात्मक अभिव्यक्ति का श्रोत अन्तः और बाह्य परिवेश के समन्वय से निर्मित होता है जो भावनात्मक स्तर पर कल्पना के प्रतिबिम्ब बनाता है । इस प्रक्रिया का संपन्न होना कभी सहज तो कभी दुर्गम भी होता है । अंतर में संवेदना का मंथन भावना को रूप नहीं प्रदान कर पाता, वो सिर्फ भावावेग को जन्म देता है और कल्पना के सतह पर सब कुछ धूमिल सा प्रतीत होता है जब तक कि भाव रचनात्मक प्रक्रिया को पूर्ण कर सहज ही व्यक्त होने को बाध्य ना हो जाये तब तक किसी भी माध्यम से अभिव्यक्ति संभव नहीं हो पाती । इसीलिए मौलिक सृजन सिर्फ अभ्यास और तकनिकी ज्ञान से सम्बह्व नहीं हो पाता , अतः इसे कृत्रिम रचना और कृति कि श्रेणी में ही रखा जा सकता है जिसका प्रभाव बहुत क्षीण होता है । समाज मानव का बनायी हुई ही एक संगठना है जिसमें नकारात्मक और सकारात्मक दोनों ही परिस्थितयों से मानव गुजरता है और यहीं से शुरू होती है स्वीकृति और प्रतिरोध की कहानी । यह एक ऐसा संगठन है जिसमें व्यक्ति के संबंधों ,क्रियाओं -अंतर्क्रियाओं , व्यवहार ,विचार और आचरण का प्रदर्शन होता है जो विभिन्न सम्प्रदाय, धर्म,वर्ग और प्रजातियों से मिलकर बनता है । यहाँ स्वीकृति का अर्थ है किसी भावना का सकरात्मक अनुमोदन और प्रतिरोध का आशय है वो अवधारणा जो विरोध करती हो जिसका आधार चाहे तर्कसंगत हो या नहीं । देखने की बात ये है कि कलाकार समाज में किसी भी तरह के उतार – चढाव , घटना- दुर्घटना चाहे वो प्राकृतिक, राजनैतिक या धार्मिक किसी भी कारण से हो , किस तरह प्रभावित होता है और उसकी कला में वो कितने सशक्त रूप में अभिव्यक्त होता है क्योंकि किसी भी कलाकृति को पारिवेशिक उद्दीपन और प्रेरक तत्व की आवश्यकता होती है । प्रायः संवेदनशील कलाकारों के लिए विषय परिस्थिति जन्य होता है और उनके समक्ष जो भी परिस्थिति उत्पन्न होती है वो उसके प्रति अपनी प्रतिक्रिया अपनी कलाकृतियों के द्वारा व्यक्त करते हैं । प्रायः कुछ कलाकार जो अपनी सामाजिक परिस्थितियों के प्रति उदासीन और अचेत रहते हैं उनकी रचनाओं में वर्षों पुनरावृत्ति और एकरसता दिखाई पड़ती है । उनकी कलाकृति दर्शक की मानवीय वृत्ति को उद्द्वेलित नहीं कर पाती । मैथली शरण गुप्त -” अभिव्यक्ति की कुशल शक्ति ही कला है “, अर्थात अपने परिवेश में अनुभूत तत्व जिसे कुशलता से व्यक्त किया गया हो, वही कला की श्रेणी में आता है । अभिव्यक्ति की विलक्षणता और शक्ति तभी प्राप्त हो सकती जिसमें नए अनुभव के आधार पर निरंतर विकास क्रम बना रहता है । जर्मन दार्शनिक फ्रेडरिक हीगल — ” संवेदना और तर्कसंगत होने की मध्यस्ता ही सौन्दर्य है ।सौंदर्य एक संवेदना है जो तर्कसंगत होकर व्यक्त कि गई है ।” मानव का समाज कम से कम संसाधनों में भी अपने आपको हमेशा से अभिव्यक्त करता रहा है क्योंकि बिनाअपनी भावना व्यक्त वो समाज के संतुलन और व्यवस्था को पोषित का ही नहीं सकता था । आश्चर्य तो इस बात पर होता कि दैनिक जीवन पद्यति में जिस तरह के भौतिक परिवर्तन और विकास की अपेक्षा में कुछ कलाकार अपनी अभिव्यक्ति के क्रमिक विकास की उपेक्षा कर अपनी शैली, माध्यम और विषय का मूल्यांकन नहीं करते वो समाज और कला दोनों के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह नहीं करते । भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के समय देश की दयनीय स्थिति से द्रवित होकर महान नाटककार भारतेंदु हरिश्चंद्र ने समाज को अपनी रचनाओं जिस तरह व्यक्त किया वो सराहनीय है । ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियों , सामाजिक आक्रोश, भूख और आभाव से त्रस्त जीवन ने उनके साहित्य को बहुत प्रभावित किया । ‘भारत दुर्दशा ‘ (१८७५)उनका बहुत चर्चित नाटक है जिसमें भारत की तत्कालीन राजनैतिक स्थिति से उत्पन्न सामजिक घर्षण,कुंठा ,अमानवीय कुचक्र का प्रतीकात्मक प्रदर्शन किया । महान कवि माखन लाल चतुर्वेदी ने भी उस समय की परिस्थिति से अभिभूत होकर समाज को प्रेरित करने का काम किया था ।समाज मानव के अन्तः संबंधों और अंतर्क्रियाओं का व्यवस्थित संगठन होता है जो अपनी भौगोलिक स्थिति में विशिष्ट संस्कृति और आचरण का निर्वहन करता है । यही कारण है कि उस संघर्ष की कहानी में सभी ने अपनी अपनी भूमिका निभाई । वीररस से ओतप्रोत कविता भयभीत और निराश समाज को एक गतिशीलता प्रदान करती है जो उनकी उक्त कविता में नज़र आता है — ‘ चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊं / चाह नहीं मैं गुथूं अलकों में विंध प्यारी को ललचाऊँ / चाह नहीं सम्राटों के द्वार पर हे हरी!डाला जाऊं /चाह नहीं देवी के सिर पर चढूं, भाग्य को इतराऊँ / मुझे तोड़ लेना वनमाली , उस पथ पर तुम देना फ़ेंक /मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जाएँ वीर अनेक / समाज के प्रति अति संवेदनशील सहित्यकार प्रेमचंद की कहानियों में उस समय की सामाजिक व्यवस्था , मानसिक और शारीरिक पीड़ा , पराधीनता कि मनोदशा और जर्जर अर्थ व्यवस्था का बहुत ही मार्मिक चित्रण मिलता है ।अपनी रचना ‘सोजे वतन “में वह लिखते है “खून कि आखिरी बूँद जो देश कि आज़ादी के लिए गिरे ,वही दुनिया का सबसे अनमोल रतन है । ” कहने का आशय ये है कि जिस सामाजिक द्वंद्ध से रचनाकार गुजरता है उससे स्वयं को रिक्त नहीं रख सकता , न ही उसकी अभिव्यक्ति का संचार बिना उस आत्मबोध के संभव है जिसमें समाज की गतिशीलता नज़र न आये ।

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