समकालीन कला में उभरती भौतिकवादी प्रवित्ति

16 Apr 2023
प्रकृति चेतन और जड़ की प्रमाणिक,संतुलित और सहज अभिव्यक्ति है जिसमें मानव अस्तित्व की सतत संघर्षमय प्रक्रिया से गुजर कर अपने अपने समाज से सीधा सम्बन्ध स्थापित करता है और किसी न किसी रूप में अपने अनुभवों को व्यक्त करता है । सृजन की शक्ति प्रकृति प्रदत्त है क्योंकि किसी भी सृजनकर्ता के लिए आज भी ये रहस्य है कि उसके बौद्धिक और आत्मिक विकास की प्रक्रिया में प्रकृति अपना योगदान और भूमिका क्यूँ और कैसे अदा करती है ! अनुभूति एक तरंग की तरह अचेतन के गर्भ में कहीं न कहीं अपना प्रभाव संचयित कर अर्धचेतन में प्रसारित होती है और यथार्थ की अनुभवों को कलाकार की व्यक्तिगत प्रतिमा रूप में परिवर्तित कर व्यक्त होने का मार्ग खोजती है; अंतर मन में विकसित अव्यक्त प्रतिमा अपने नए रूप को व्यक्त करने के लिए जिन सोपानों और अवरोधों से गुजरती है उसी को सृजन प्रक्रिया कह सकते हैं । मानसिक प्रतिमाओं कलात्मक रूप पाने के लिए आत्मिक और बौद्धिक द्वंद्ध से गुजरना पड़ता है ।इस प्रकिया में मानसिक प्रतिमाओं का बनना और बिखर जाना और फिर संगठित होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है और कलाकार के भावावेश और मासिक अवस्था पर निर्भर करता है । सृजन की सहज प्रक्रिया में हर स्तर पर कलाकार के मौलिक विचार, शिक्षा , पारिवारिक परिवेश , सामाजिक परिवेश , सहज वृत्ति और अनुवांशिक गुणों का बहुत प्रभाव होता है, यही कारण है कि मानवीय दृष्टिकोण से कोई दृश्य,घटना अथवा विषय एक कलाकार को द्रवित कर देता है और दूसरे को नहीं । इसीलिए विभिन्न कलाकारों के आत्मबोध से उपजी कला के मापदंड अलग अलग होते हैं और कला की वो अपने अपने ढंग से व्याख्या करते हैं ।उदाहरण के तौर पर यदि कोई कलाकार किसी राजनैतिक संघटना से प्रभावित होता है तो उसके सामाजिक व्यवहार,विचार और सहज वृत्ति और चयन पर परोक्ष अपरोक्ष रूप कुछ ऐसा ज़रूर प्रतीत होता है जो उसकी अभिव्यक्ति में प्रदर्शित होता है । ऑस्ट्रिया के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक सिगमंड फ्रायड का मानना है कि मानव मष्तिष्क अनेक कुंठाओं की रणभूमि होती है और मानव के मानसिक उद्भव और विकास में यौन चेतना किसी भी स्थिति में जन्म से विद्यमान रहती है ।एक तरह से सृजन द्वारा सौन्दर्यानुभूति का आधार भी यौन वृति ही है । इस मनोविश्लेषण के सिद्धांत के अनुसार मानव की ये मौलिक वृत्ति जो प्रजनन से सम्बंधित है वो सृजन का मूल करक है और यौन व्यापार ही रचनात्मकता को संचालित करता है । लेकिन जर्मन दार्शनिक हीगल (१७७ओ- १८३१ ) प्रकृति को जड़ न मानकर चित्त की उद्दीपन शक्ति मानते हैं । मानव मन में प्रकृति अपना विस्तार पाती है और स्वछन्द रूप धारण करके कला में परिवर्तित होती है । मुझे लगता है कि प्रकृति स्वयं में सर्वश्रेष्ठ और प्रधान सत्ता है पर उसकी सुनियोजित प्रक्रिया में मानव की उत्पत्ति और उद्भव का भी कोई विशेष प्रयोजन ज़रूर होगा अन्यथा मूल प्रवृत्तियों पर निर्भर रहकर अभिव्यक्ति का परिमार्जन और संवर्धन इतने रूपों में संभव न होता । कविता,कहानियां ,चित्र ,मूर्ती ,फिल्में ,गीत संगीत किसी भी विधा का विकास संभव ही न होता । उनका कथन है कि सौंदर्य के प्रति अगाध आकर्षण रखते हुए खुद को अभिव्यक्त करना ही कला है । लेकिन सौदर्य है क्या इसको प्रायः किसी ने वर्गीकृत करने का या उलेख करने का प्रयास किसी ने नहीं किया क्योंकि हर मानव मस्तिष्क के लिए सौंदर्य बोध अर्थ बहुत वयक्तिक होता है । एक और जर्मन दार्शनिक इमनुअल कांट (१७२४ – १८०४ )- इनके अनुसार नैतिकता और आध्यात्मिकता एक ऐसी विशेषता है जो सौंदर्य के विशुद्ध परिणाम को प्राप्त कर सकती है । इसका अर्थ है कि किसी भी कलाभिव्यक्ति में व्यक्त भाव का सौन्दर्यबोध तभी संभव है । उन्होंने सौन्दर्यबोध से अनुभूत आनंद को बहुत विलक्षण माना है । इन्द्रिय और अतीन्द्रिय के मध्य सम्बन्ध ही सौंदर्य का प्रमाण होता है । अतः द्रष्टा और दृश्य के बीच स्थापित सामंजस्य से उपजी अनुभूति ही सौन्दर्यानुभूति है । इसका अभिप्राय है कि ये आनंद भौतिक सुख से ज्यादा विलक्षण है इसीलिए भौतिक सुख प्रायः बहुत वयक्तिक होता है । कहीं न कहीं वो मानते है कि दृष्टा के समक्ष प्रतुत अभिव्यक्ति की विशुद्धता ही कलाकृति का स्वाभाविक गुण है ।इस आदर्शवादी विचार के अनुसार कला की अनुभूति का अतीन्द्रिय रूप जब भौतिक रूपांतरण के बाद इन्द्र्यजनित होकर एक सामंजस्य स्थापित करता है तो कलाकृति में सौंदर्य का अनुभव होता है । लेकिन सोंचने का विषय ये है कि क्या इस प्रक्रिया में विशुद्ध सौन्दर्यबोध का होना व्यावहारिक और संभावी है ? बेन्देत्तो क्रोचे (१८६६ – १९५२ ) इटली — इनका कथन है कि आत्मा कि उद्भव अवस्था में कामना , इच्छा और क्रिया और तीनो के एकात्म में आत्मभिव्यक्ति अपने रूप को ग्रहण करती है ।इसीलिए कुछ व्यक्त करते समय कलाकार के भावसंवेगों के रूप में उसकी इच्छा और क्रिया की ही अभिव्यति होती है और इसी से कलकार की आंतरिक गतिशीलता का पता चलता है।क्रोचे बहिर्जगत को स्वीकार नहीं करते लेकिन अनुभूत सत्य आन्तरिक भाव ही है और अगर उसका कोई स्थायित्व है तो वह बाह्य जगत के बिना संभव कैसे हो सकता है क्योंकि प्रकृति बिना संयोजन और संतुलन के कोई क्रिया नहीं करती । संभवतः इस बात पर शायद ही किसी को संदेह हो रचनामक बोध की गुणवत्ता उसे वरदान स्वरुप प्रकृति की ही देन है । मानव के सामाजिक ,सांस्कृतिक और बौद्धिक विकास में सिर्फ औपचारिक शिक्षा की भूमिका ही नहीं होती बल्कि कला और साहित्य का भी अपना बहुत बड़ा योगदान होता है या यूँ कहें सिर्फ औपचारिक शिक्षा जिसे जीवन का अंतिम लक्ष्य वह बौद्धिक और व्यक्तित्व के परिमार्जन में अपनी सिर्फ छोटी सी ही भूमिका निभा पाती है जिससे जीविका संचालित की जा सके । दुर्भाग्यवश शिक्षा प्रणाली में ऐसा कोई प्रयोजन प्रतीत नहीं होता जिसमें प्रकृति के आदर्शवाद से विकिसित आत्मबोध और चिंतन की कोई विधा या दृष्टिकोण हो । सभी की तरह कलाकार भी एक सामाजिक प्राणी है और वह उसी परवेश में अंतर्क्रिया करता है , प्रेरणा प्राप्त करता और सृजन की प्रक्रिया में लग जाता है । ऐसी प्रक्रिया की मनःस्थिति में मन में बनती बिगड़ती प्रतिमाओं को कई अवरोधों का सामना करना पड़ता है और इसका प्रमुख कारण प्रकृति से विमुख होकर रचना कर्म करना है । प्रकृति के सानिध्य में चिंतन बौद्धिक और आत्मिक स्तर एक ऐसी सहज और उन्मुक्त शक्ति प्रदान करता है जिससे भावप्रवण मानसिक बिम्बों का निर्माण सृजन प्रक्रिया के दौरान बड़ी सहजता और प्रवाहमयी ढंग से होता है । उदाहरण के तौर पर यदि कोई चित्रकार किसी फूल को पेंट करता है और वह सिर्फ उसके बाह्य रूप रंग और सदृश्य पर ही अपना ध्यान केन्द्रित कर उसे चित्रित करता है तो इसका अर्थ ये हुआ कि उसकी व्यक्तिगत आत्मानुभूति नहीं है, क्योंकि न ही उसने फूल प्रतीकात्मक अर्थ को महसूस किया न ही उस फूल के चरित्र को । ये ऐसी स्थिति है कोई भी रचना जो आभासी यथार्थ के मोह से मुक्त नहीं हो पाती या किसी भी वस्तु या व्यक्ति को नये ढंग से रूपांतरित नहीं कर पाती, उसमें प्रकृति का उद्दात निहित नहीं होता । अति भौतिकवाद एक मनः स्थिति है जो अनावश्यक को तो अभिवक्ति को क्षीण करती है लेकिन बिना उसके अभिवक्ति संभव भी नहीं क्यूंकि स्थूल और अस्थूल का सम्बन्ध प्राकृतिक है ।सत्य अमूर्त होने के पश्चात् भी व्यक्त होने के लिए भौतिक सत्ता में ही रूपांतरित होता है । ये भातिकता वह भौतिकता नहीं है जो लोभ से जन्म लेती है । कलाकार को उसकी आत्मिक शक्ति और मानवतावादी दृष्टि ही उसे इस मोह और अवांछित भौतिकवाद के भ्रम से बचा सकती है ।

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